रायगढ़

बड़ी खबर: मौत की दस्तक बनकर पहुंचा नगर निगम का नोटिस – वार्ड 29 में तबाही के कगार पर सैकड़ों परिवार, एक बुज़ुर्ग महिला की सदमे से मौत ।

@कैलाश आचार्य/ रायगढ़ | “घर उजड़ जाए तो इंसान भी भीतर से उजड़ जाता है!” – नगर निगम की कथित अतिक्रमण हटाओ मुहिम ने वार्ड 29 के सैकड़ों परिवारों को इसी हाल में पहुंचा दिया है। कयाघाट, जेलपारा और प्रगति नगर में रहने वाले लोगों पर एकाएक गिरी इस ‘प्रशासनिक गाज’ ने सिर्फ छतें नहीं छीनीं, बल्कि एक ज़िंदगी भी लील ली।

नगर निगम द्वारा 12 जून तक मकान खाली करने का फरमान सुनाया गया है, जिसने पूरे इलाके में कोहराम मचा दिया है। इस नोटिस के कुछ ही देर बाद दुखनी बाई भुंईहर नामक वृद्ध महिला ने सदमे में दम तोड़ दिया। परिजनों के अनुसार, यह मौत ‘सरकारी आदेश की मार’ से हुई हत्या के समान है।

“आसमानी बिजली नहीं, ये तो इंसानी बेदिली थी!”

संविधान की धज्जियाँ और मानवता का गला घोंटा गया…
नगर निगम ने इन इलाकों को “राष्ट्रीय गंदी बस्ती” घोषित कर अतिक्रमण हटाने का आदेश दिया है, लेकिन स्थानीय नागरिकों के अनुसार यह कानून और नैतिकता दोनों के खिलाफ सीधा हमला है।

प्रधानमंत्री आवास योजना समेत अन्य सरकारी योजनाओं के तहत मिले प्लॉट्स और मकानों को अब अवैध बताया जा रहा है। यह ना केवल सरकारी विश्वासघात है, बल्कि संविधान में निहित सम्मानपूर्वक जीवन जीने के अधिकार की सीधी तौहीन है।

नदी की आड़ में ज़मीन खिसकाना?…
स्थानीयों का आरोप है कि नदी की वास्तविक सीमा को मनमाने ढंग से खींचा गया, ताकि अधिक से अधिक घर अतिक्रमण की श्रेणी में ला दिए जाएं। यह प्रशासनिक चालबाज़ी है या फिर किसी भू-माफिया के लिए ज़मीन खाली कराने की पटकथा?

“जहाँ नीति होनी थी, वहाँ नीचता निकल आई!”

कानून की आंखों पर पट्टी?…
कानूनी विशेषज्ञों का कहना है कि अगर लोगों ने वैध तरीके से मकान बनाए हैं या सरकारी योजनाओं से लाभ लिया है, तो बिना पुनर्वास के यह बेदखली न सिर्फ मानवाधिकारों का हनन है, बल्कि प्राकृतिक न्याय के मूल सिद्धांतों की भी हत्या है।

सुप्रीम कोर्ट भी बार-बार कह चुका है कि किसी भी बस्ती को उजाड़ने से पहले सुनवाई और पुनर्वास की प्रक्रिया अनिवार्य है। लेकिन रायगढ़ में कानून को कचरे की टोकरी में डाल दिया गया है।

बिना दाना-पानी के पिंजरा तोता भी छोड़ता नहीं…
स्थानीय सामाजिक संगठनों और जनप्रतिनिधियों ने नगर निगम को आड़े हाथों लिया है। उनका कहना है कि बिना वैकल्पिक व्यवस्था और जनसुनवाई के यह कार्यवाही तानाशाही की बानगी है।

“ये कार्रवाई नहीं, यह प्रशासनिक अत्याचार है – न्याय की चिता पर जलते हैं अब गरीबों के घर!”

दीवारें टूटती हैं, पर चुप्पी नहीं…
अब तक नगर निगम मौनव्रत धारण किए बैठा है, न कोई जवाब, न कोई संवेदना। इस बीच पीड़ित नागरिकों ने स्पष्ट कहा है – अगर न्याय नहीं मिला तो वे आंदोलन करेंगे, मानवाधिकार आयोग से लेकर न्यायालय तक आवाज़ उठाएँगे।

“अगर न्याय के दरवाजे बंद हुए, तो हम उसे अपनी आवाज़ से तोड़ेंगे!”

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