छत्तीसगढ़बिलासपुर

व्यक्तित्व निर्माण के चार आयाम , “ट्रांजेक्शनल एनालिसिस” का मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण ।

आलेख: द्वारिका प्रसाद अग्रवाल (बिलासपुर)

बिलासपुर/ छत्तीसगढ़:- डा.एरिक बर्न ने लोगों के व्यवहार को समझने के लिए एक नया विचार विकसित किया जिसका उन्होंने ‘ट्रांजेक्शनल एनालिसिस’ नाम दिया.

दुनिया में हर व्यक्ति एकदम नया पैदा होता है. हर एक व्यक्ति के देखने, सुनने, छूने, स्वाद लेने और सोचने का ढंग अनोखा होता है.सबकी अपनी विशिष्ट क्षमताएं और सीमाएं होती हैं. इसमें कुछ लोग विजेता होते हैं तो कुछ पराजित.
विजेता अपने जीवन की राह और उद्देश्य खुद तय करता है, वह सफलता और असफलता दोनों में स्वयं को जिम्मेदार मानता है और अपनी असफलताओं का दोष दूसरों पर नहीं मढ़ता. ऐसा मनुष्य दूसरों की सुनता है, दूसरे जो कह कह रहे हैं उनका मूल्यांकन करता है परंतु अपने निष्कर्ष स्वयं निकालता है. ये अपने जीवन की जिम्मेदारी खुद लेते हैं, ये दूसरों के विचारों से प्रभावित न होकर खुद के मालिक होते हैं और इस बात को वे भलीभांति जानते भी हैं. वे जानते हैं कि कब आक्रामक होना है और कब सहनशील होना, कब साथ मिलकर चलना है और कब अकेले हो जाना, कब झगड़ना है और कब प्यार करना, कब काम करना है और कब खेलना, कब रोना है और कब हंसना, कब बोलना है और कब चुप रहना, कब जल्दबाजी करना है और कब प्रतीक्षा करना.
विजेता समय के महत्व को जानता है. वह समय को बरबाद नहीं करता बल्कि उसका उपयोग करता है. ऐसे लोग अपने अपने अतीत का ध्यान रखते हैं, वर्तमान को जीते हैं और भविष्य की ओर नज़र रखते हैं. ये अपने जीवन को उत्साहित होकर जीते हैं, काम करने मे आनंद महसूस करते हैं, खेलते हैं, खाते हैं, सेक्स करते हैं और जो भी करते हैं उसके मज़े लेते हैं. ये स्वकेंद्रित नहीं होते, दूसरों के हितों और भावनाओं का ख्याल रखते हैं और दुनिया को बेहतर बनाने के प्रयास करते हैं.
जबकि पराजित व्यक्ति पूरी तरह से अपने आसपास के वातावरण पर आश्रित होते हैं. ये अपने जीवन की जिम्मेदारी लेने से परहेज करते हैं और अपनी असफलताओं का दोष दूसरों पर डाल देते हैं और खुद को दया का पात्र बनाने की कोशिश करते हैं. इनकी शिकायतें बनी रहती हैं, ‘काश मेरा विवाह किसी दूसरे से हुआ होता’, ‘काश मैं कोई दूसरा काम करता’, ‘काश मैं खूबसूरत होता’, ‘काश मैं किसी धनी परिवार में पैदा हुआ होता’, ‘काश मेरे माता-पिता बेहतर होते’ आदि. ये लोग जीवन में किसी चमत्कार होने की सम्भावना की आस में रहते हैं और डरपोक स्वभाव के होते हैं.
पराजित व्यक्तित्व को विजेता के रूप में परिवर्तित किया जा सकता है बशर्ते कि उसके मनोविज्ञान का बारीकी से
अध्ययन किया जाए, उसके अतीत को समझा जाए और बदलने के सार्थक प्रयास किए जाएं.

तीन इगो स्टेट होती हैं:
1: द पैरेंट इगो स्टेट : स्वभाव व व्यवहार में बाह्य स्रोतों से प्राप्त प्रभाव.
जब किसी कार्य को करने के पूर्व वैसा करते या सोचते या महसूस करते हैं जैसा आपके अभिभावक किया करते थे, आप पैरेंट इगो स्टेट में हैं. ऐसे लोग सामान्यतया पूर्वाग्रही, आलोचक और दूसरों की देखभाल करने वाले होते हैं.
2: द एडल्ट इगो स्टेट : स्वभाव व व्यवहार में वर्तमान वास्तविकता एवं वस्तुनिष्ठ सूचनाओं का प्रभाव.
जब अपने निर्णय वास्तविकता और तथ्यों की जांच-पड़ताल के बाद तय करते हैं, आप डल्ट इगो स्टेट में हैं. ऐसे लोग व्यवस्थित, अनुकूलित, बुद्धिमान तथा गणितीय व्यवहार करने वाले होते हैं.
3 : द चाइल्ड इगो स्टेट : स्वभाव व व्यवहार में बच्चों जैसे स्वाभाविक आवेगों का प्रभाव.
जब किसी कार्य को करते या सोचते या महसूस करते हैं जैसा अपने बचपन में किया करते थे, आप चाइल्ड इगो स्टेट में हैं. ऐसे लोग अपने बचपन के अनुभव, प्रतिक्रियाओं और परिस्थितियों से प्रभावित होने वाले होते हैं.

डा. एरिक बर्न के अनुसार मनुष्य के जीवन में उसके विचार इन चार प्रक्रियाओं से होकर गुजरते हैं :

  1. मैं सही नहीं, तुम सही : I am not okay, you are okay.
  2. मैं सही नहीं, तुम भी सही नहीं : I am not okay, you are not okay.
  3. मैं सही, तुम सही नहीं : I am okay. You are not okay.
  4. मैं सही, तुम भी सही : I am okay, you are okay.
  5. मनोवैज्ञानिक मानते हैं कि मनुष्य अपने बचपन में 3 से 4 साल की उम्र में वह जैसा देखता और समझता है, वैसा उसके दिमाग में स्थायी रूप से अंकित हो जाता है और उन सूचनाओं का प्रभाव उसके पूरे जीवन भर के व्यवहार व स्वभाव में दिखाई पड़ता है. बच्चा भाषा नहीं जानता लेकिन आसपास हो रही घटनाओं को देखता-सुनता-समझता है और वे बातें उसके कोरे मस्तिष्क में अंकित होते रहती हैं. नवजात शिशु अपने आसपास अपने से बहुत बड़े आकार के लोगों को देखता है, वह बिस्तर से उठ नहीं सकता, कुछ बड़ा होने पर वह चलने की कोशिश करता है लेकिन गिर पड़ता है, सीढ़ी पर नहीं चढ़ पाता, गिलास को पकड़ता है तो वह हाथ से छूट जाता है, कुछ लिखने की कोशिश करता है लेकिन लिख नहीं पाता आदि, जबकि दूसरे लोग ये सब आराम से कर लेते हैं. मनुष्य के जन्म से बचपन तक का समय दूसरों पर आश्रित रहता है। कदम-कदम पर उसे ऐसा महसूस होता है कि बहुत से कार्य ऐसे हैं जिसे वह नहीं कर पाता लेकिन जो उम्र में बड़े हैं- वे कर सकते हैं। यह देखकर उसके मन में नकारात्मक भाव आ जाता है कि वह अशक्त है, दूसरे लोग सशक्त हैं. मुझमें कमी है तुम में नहीं है. जब भी वह दूसरों से प्रतिस्पर्धा में पिछड़ता है, हीनता का यह भाव उसका जीवन भर पीछा करता है. इस वज़ह से उसमें हीनभावना विकसित हो जाती है और उसे लगता है- मैं अक्षम हूँ लेकिन अन्य लोग सक्षम हैं। मैं गलत हूँ, तुम सही हो. इसे कहते हैं, ‘मैं सही नहीं, तुम सही : I am not okay, you are okay.’
  6. बच्चा जब थोड़ा समझदार होता है तो वह अनुभव करता है कि गलतियां केवल उससे ही नहीं होती, दूसरे भी करते हैं तब वह अपनी गलतियों को ‘जस्टिफाई’ करने के लिए दूसरों पर उंगली उठाता है- ‘अगर मैं गलत हूँ तो वह भी तो गलत है।’ जब वह बड़ा होने लगता है तब देखता है कि केवल उससे गल्तियां नहीं होती, दूसरों से भी हो रही हैं. मां के हाथ से कप छूटकर गिर जाया करता है, दादी मां सीढ़ी में नहीं चढ़ सकती, उससे अधिक आयु के बच्चे दौड़ते-दौड़ते फिसल जाते हैं, पिता की हस्तलिपि अच्छी नहीं है आदि, तो उसे समझ में आ जाता है कि केवल वह कमजोर नहीं है अन्य लोग भी हैं तो उसे दूसरों में कमियां देखकर अपनी कमियों का औचित्य समझ में आने लगता है. ऐसे में वह मनुष्य दूसरों में दोष देखकर खुद को निर्दोष सिद्ध करने का अभ्यस्त हो जाता है. मैं गलत हूं तो तुम भी तो गलत हो. इसे कहते हैं, ‘मैं सही नहीं, तुम भी सही नहीं,’ (I am not okay, you are not okay.)
  7. जब किशोरावस्था व युवावस्था आती है, धीरे-धीरे उसका आत्मविश्वास बढ़ने लगता है तब वह यह सोचने लगता है कि वह सही निर्णय लेने में समर्थ है और घर के बड़े-बूढ़े असमर्थ हैं.वयस्क होने के बाद जब शारीरिक और आर्थिक आत्मनिर्भरता विकसित हो जाती है तब उसे लगता कि वह सही है, सक्षम है, बुद्धिमान है और दूसरे गलत हैं। स्वयं के दोष उसे नहीं दिखते और अन्य के दोष उसे दिखाई देने लगते हैं. उसकी आमदनी अपने पिता की आमदनी से अधिक है, वह अधिक पढ़ा-लिखा है, उसकी जानकारी दूसरों से बेहतर है ऐसी स्थिति में उसे लगने लगता है कि वह सही है, शेष लोग गलत हैं. इस संसार में अधिकतर लोग इसी सोच से प्रभावित हैं कि ‘मैं होशियार हूं, तुम मूर्ख हो’, ‘मैं सब जानता हूं, तुम कुछ नहीं जानते’, ‘मुझे आता है, तुम्हें नहीं आता’. स्वयं की श्रेष्ठता को सिद्ध करते समय मनुष्य अपनी हीन भावना को छिपाता है और सामने वाले व्यक्ति को कम साबित करने की कोशिश करता है. इसे कहते हैं, ‘मैं सही, तुम सही नहीं : ‘I am okay. you are not okay’
  8. उपरोक्त तीनों स्थितियों में नकारात्मकता है, या तो मैं सही नहीं हूं या सामने वाला सही नहीं है. इस नकारात्मकता से बचा जा सकता है यदि दोनों पक्ष सही हों. ‘मैं भी सही, तुम भी सही.’ यह आपसी व्यवहार की सर्वोत्तम स्थिति है. स्वयं को अक्षम समझना मनुष्य को हीन, कमजोर और लाचार बनाता है जबकि दूसरों में दोष देखना हमें परछिद्रान्वेषी, घमंडी, ईर्ष्यालु, बहानेबाज और गैरजिम्मेदार बनाता है। किसी भी बात पर अलग-अलग दृष्टिकोण हो सकते हैं, देखने के ढंग में फर्क हो सकता है, समझने के ढंग में अंतर हो सकता है किंतु यदि किसी बात पर भिन्न दृष्टिकोण है तो सामने वाले की दृष्टि को समझकर उसे समझा और स्वीकार किया जा सकता है. मनुष्य के लिए आदर्श और सकारात्मक सोच है- मैं सही, तुम भी सही. इसे कहते हैं, ‘मैं सही, तुम भी सही (I am okay, you are okay.)’

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